(लेखक: दीपांकरशील प्रियदर्शी, छात्र – BA.LL.B., लखनऊ यूनिवर्सिटी)
हर साल होली से एक दिन पहले होलिका दहन किया जाता है। इसे बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन क्या होलिका सच में बुरी थी? क्या हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद और होलिका की कहानी वास्तविक इतिहास है, या यह एक खास वर्ग द्वारा गढ़ा गया मिथक है?
इस लेख में हम होलिका दहन की पौराणिक कथा, इसके पीछे छिपी ऐतिहासिक सच्चाई और इसके सांस्कृतिक प्रभावों का गहन विश्लेषण करेंगे।
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1. पौराणिक कथा: विजेताओं की बनाई कहानी?
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, हिरण्यकशिपु नामक असुर राजा को ब्रह्मा से अमरत्व का वरदान प्राप्त था। वह विष्णु का विरोधी था और अपने पुत्र प्रह्लाद को भी विष्णु-भक्ति छोड़ने के लिए कहता था। जब प्रह्लाद नहीं माना, तो हिरण्यकशिपु ने उसे मारने की योजना बनाई।
यही समय था जब हिरण्यकशिपु की बहन होलिका ने प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने का फैसला किया, क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। लेकिन विष्णु की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जलकर भस्म हो गई।
इसके बाद से हर साल होलिका दहन कर बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाया जाता है। लेकिन सवाल उठता है—क्या यह वास्तव में ऐतिहासिक घटना थी, या यह एक मनगढ़ंत कथा है?
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2. असुरों का वास्तविक इतिहास
यदि हम वैदिक ग्रंथों और पुराणों का विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि असुर और दैत्य किसी राक्षसी जाति के नहीं, बल्कि भारत के मूलनिवासी समुदायों के प्रतीक थे। असुर, दैत्य, दानव आदि नाम उन राजाओं और उनके अनुयायियों को दिए गए, जो वैदिक धर्म को स्वीकार नहीं करते थे और अपने स्वतंत्र धर्म और संस्कृति का पालन करते थे।
हिरण्यकशिपु, महिषासुर, रावण, और बलि जैसे राजाओं को "बुराई" का प्रतीक बना दिया गया, क्योंकि वे वैदिक ब्राह्मणवादी सत्ता के विरोधी थे। महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने भी यह तर्क दिया कि आर्यों ने भारत के मूल निवासियों को हराने के बाद उन्हें असुर और राक्षस घोषित कर दिया।
होलिका का जलाया जाना दरअसल ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़े एक समुदाय की पराजय और उनकी संस्कृति के दमन का प्रतीक हो सकता है।
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3. होलिका: बुराई या शहीद?
यदि हम कथा को नए दृष्टिकोण से देखें, तो होलिका एक बुरी राक्षसी नहीं बल्कि अपने परिवार और समुदाय की रक्षक हो सकती है।
संभावनाएँ:
होलिका असल में एक योद्धा थी, जिसने अपने भाई हिरण्यकशिपु के राज्य की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
ब्राह्मणवादी कथा कहती है कि होलिका के पास आग में न जलने का वरदान था, लेकिन यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक कहानी हो सकती है।
होलिका की हत्या असल में धार्मिक और सांस्कृतिक टकराव का परिणाम थी, जिसे बाद में एक "त्योहार" के रूप में स्थापित कर दिया गया।
कँवल भारती और जोतिबा फुले का विश्लेषण:
सुप्रसिद्ध विचारक कँवल भारती कहते हैं कि होलिका की हत्या के बाद ढोल-नगाड़े बजाकर जश्न मनाया गया, और यही परंपरा आगे चलकर होलिका दहन के रूप में विकसित हुई।
महात्मा जोतिबा फुले ने भी अपने लेखन में इस बात पर जोर दिया कि असुरों को हमेशा गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। उन्होंने लिखा कि "नरसिंह ने होलिका को जलाकर ब्राह्मण सत्ता को मजबूत किया।"
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4. होलिका दहन: आज के संदर्भ में आलोचना
होलिका दहन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक-राजनीतिक संदेश भी है।
यह त्योहार एक समुदाय को "बुराई" के रूप में दिखाने का प्रयास हो सकता है।
यह भारत के मूलनिवासियों के इतिहास और उनकी संस्कृति को दबाने का माध्यम भी हो सकता है।
होलिका दहन के दौरान आज भी कई जगहों पर महिला विरोधी और जातिवादी नारे लगाए जाते हैं, जो इसके असली उद्देश्य पर सवाल खड़ा करता है।
कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि दलित-बहुजन समुदायों को इस त्योहार का बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि यह उनके पूर्वजों के दमन और हत्या का जश्न मनाने जैसा है।
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निष्कर्ष: हमें इतिहास को नए सिरे से देखने की जरूरत है
होलिका दहन की प्रचलित कथा को चुनौती देना जरूरी है। हमें यह समझना होगा कि जो लोग इतिहास लिखते हैं, वे अक्सर विजेता होते हैं, और वे अपनी जीत को न्यायोचित ठहराने के लिए कहानियाँ गढ़ते हैं।
आज जब हम समानता और सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं, तो हमें यह सोचना होगा कि क्या होलिका सच में बुराई की प्रतीक थी, या वह भी एक ऐसी योद्धा थी, जो अपने समुदाय और धर्म की रक्षा के लिए लड़ी और मारी गई?
हमें होलिका दहन के वास्तविक इतिहास को समझना होगा और इस पर विचार करना होगा कि क्या इसे जारी रखना उचित है?
क्या आपको भी लगता है कि होलिका दहन पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए? अपने विचार कमेंट में साझा करें।
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