सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 का परिचय

यह लेख लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र (दीपांकरशील प्रियदर्शी)  द्वारा लिखा गया है जिसमें सिविल प्रक्रिया संहिता का परिचय ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संहिता की प्रकृति संहिता का उद्देश्य संहिता का विस्तार संहिता का प्रारंभ समेकन और संहिता कारण संहिता का विस्तार और प्रायोजित संहिता की योजना आदि विषयों का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया गया है जो इस प्रकार है
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संक्षेप में संहिता का एतिहासिक विकास
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) भारत में सिविल मुकदमों के निपटान के लिए बनाई गई एक महत्वपूर्ण विधिक प्रक्रिया है। इसका ऐतिहासिक विकास काफी महत्वपूर्ण रहा है, जिसमें कई सुधार और बदलाव किए गए हैं। आइए इसके प्रमुख ऐतिहासिक पहलुओं पर एक नज़र डालें:

1. प्राचीन भारत: भारत में न्याय प्रणाली का प्राचीन काल से एक गहरा इतिहास रहा है। मौर्य, गुप्त और मुगल काल में भी सिविल मामलों के निपटान के लिए कुछ नियमों और प्रक्रियाओं का पालन किया जाता था, परंतु यह विधिक रूप से संगठित नहीं था।


2. ब्रिटिश काल:
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद, न्याय प्रणाली में यूरोपीय विधियों को लाया गया।
1859 में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने "सिविल प्रक्रिया कोड" बनाया, जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सिविल मुकदमों के लिए लागू था। हालांकि, यह सभी क्षेत्रों में समान रूप से लागू नहीं था।



3. 1908 का सिविल प्रक्रिया संहिता:
1908 में भारत सरकार ने वर्तमान सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) को लागू किया। यह संहिता भारतीय सिविल मामलों को न्यायपूर्ण, त्वरित और प्रभावी ढंग से हल करने के लिए बनाई गई थी।
1908 के CPC में विभिन्न प्रक्रियाएं और नियम निर्धारित किए गए थे, जो आज भी सिविल मामलों के निपटारे के लिए लागू होते हैं।

4. स्वतंत्रता के बाद:
1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद, CPC में समय-समय पर सुधार किए गए हैं। भारतीय संसद ने सिविल प्रक्रिया में कई संशोधन किए ताकि न्याय प्रणाली को आधुनिक और प्रगतिशील बनाया जा सके।

5. वर्तमान स्थिति:
सिविल प्रक्रिया संहिता आज भी सिविल मुकदमों के निपटान में मुख्य रूप से लागू होती है, जिसमें कई सुधार और संशोधन समय-समय पर किए गए हैं ताकि यह समयानुसार और प्रभावी हो। CPC का यह विकास भारत की न्याय प्रणाली को संगठित और सुव्यवस्थित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।



ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background) 1859 से पहले, सिविल प्रक्रिया की कोई सामान्य संहिता नहीं थी। प्रथम सामान्य संहिता 1859 में अधिनियमित की गई थी, परंतु 1859 की सामान्य संहिता को भी प्रेसीडेंसी नगरों के उच्चतम न्यायालयों और प्रेसीडेंसी लघुवाद न्यायालयों पर लागू नहीं किया गया था। उसमें कुछ संशोधन किये गए और सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में इस संहिता को लागू किया गया, किंतु इसमें अनेक दोष थे, इसलिये 1877 में एक नवीन संहिता अधिनियमित की गई। इसके उपरांत 1822 में पुनः एक और संहिता अधिनियमित की गई, जिसमें समय-समय पर संशोधन भी किये गए।

1908 में, वर्तमान संहिता अधिनियमित की गई। इसे 1951 और 1956 के दो महत्त्वपूर्ण संशोधन अधिनियमों द्वारा संशोधित किया गया। कुल मिलाकर इस संहिता ने संतोषजनक तरीके से कार्य किया, यद्यपि कि इसमें कुछ दोष थे।
     विधि आयोग ने अपनी विभिन्न रिर्पोटों में अनेक सिफारिशें की और उन पर सावधानीपूर्वक विचार करने के पश्चात्, सरकार ने निम्नलिखित विचारों को ध्यान में रखते हुए सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में संशोधन के लिये विधेयक को लाने का निर्णय लियाः

• वादी को प्राकृतिक न्याय के स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्ष विचारण मिलना चाहिये।

• दीवानी वादों और कार्यवाहियों के निपटान में तीव्रता लाने के लिये यथासंभव प्रयास किया जाना चाहिये जिससे न्याय में विलंब न हो।

• प्रक्रिया जटिल नहीं होनी चाहिये और जहाँ तक संभव हो सके निर्धन वर्गों के लिये एक उचित प्रक्रिया सुनिश्चित करनी चाहिये।

उद्देश्य 

सिविल प्रक्रिया संहिता का उद्देश्य, सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया से संबंधित विधियों का समेकन और संशोधन करना है जिसे सिविल प्रक्रिया संहिता के रूप में जाना जाएगा। यह दीवानी न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली सिविल प्रक्रिया संहिता से संबंधित प्रत्येक विधियों को एकत्रित करने वाली एक समेकित संहिता है।

• इसे न्याय को सुविधाजनक बनाने तथा लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिये रूपांकित किया गया है।

• यह दण्ड एवं जुर्माने के लिये कोई दण्डात्मक अधिनियम नहीं है और न ही लोगों को परेशान करने के लिये बनाई गई कोई वस्तु है।

प्रकृति 

विधियों को दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है:

• सारवान् विधि (Substantive law)

• विशेषण या प्रक्रियात्मक विधि (Adjective or Procedural law)

सारवान् विधि पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करती है तथा प्रक्रियात्मक विधि उन अधिकारों एवं दायित्वों के प्रवर्तन के लिये व्यवहार, प्रक्रिया व तंत्र की विवेचना करती है।

'सिविल प्रक्रिया संहिता' एक प्रक्रियात्मक विधि है अर्थात् एक विशेषण विधि है। सिविल प्रक्रिया संहिता न तो कोई अधिकार सृजित करती है और न हो वंचित करती है। यह केवल 'सारवान् विधि' को प्रवर्तित करने या लागू करने में सहायता करती है।

प्रक्रियात्मक विधि सदैव भूतलक्षी होती हैं जब कि इसके विपरीत कोई तर्क न हो। तर्क यह है कि प्रक्रियात्मक रूपों में किसी का निहित अधिकार नहीं हो सकता।

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के अधीन "न्यायालयों की अंतर्निहित शक्ति की व्यावृत्ति" विशेष रूप में उपबंध करती है कि "इस संहिता की किसी भी बात के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि वह ऐसे आदेशों के देने की न्यायालयों की अंतर्निहित शक्ति को परिसीमित या अन्यथा प्रभावित करती है, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की आदेशिका के दुरुपयोग का निवारण करने के लिये आवश्यक है", अतः हम कह सकते हैं कि सिविल प्रक्रिया संहिता विशेष रूप से इसके अंतर्गत आने वाले मामलों पर संपूर्ण है।
यद्यपि, संहिता उन बिंदुओं पर संपूर्ण नहीं है, जिन के बारे में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।

विस्तार 

सिविल प्रक्रिया संहिता विशेष रूप से इसके अंतर्गत आने वाले मामलों पर विस्तृत है। परंतु यह उन बिंदुओ पर विस्तृत नहीं है जिन पर विशेष रूप से विचार नहीं किया गया है।

विधायिका भविष्य में वादों में उत्पन्न होने वाली उन सभी संभावित परिस्थितियों पर विचार करने और परिणामस्वरूप उनके लिये प्रक्रिया का उपबंध करने में असमर्थ हैं। उन मामलों के संबंध में न्यायालय के पास न्याय, साम्या और स‌द्विवेक के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने की - अंतर्निहित शक्ति है।

सिविल प्रक्रिया संहिता विशेष रूप से उपबंध करती है कि "इस संहिता को न्याय के लिये आवश्यक आदेश देने या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति को सीमित या अन्यथा प्रभावित करने वाला नहीं माना जाएगा"।

 प्रारंभ, समेकन और संहिताकरण 

• सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) । जनवरी, 1909 से प्रभावी हुई।
• सिविल प्रक्रिया संहिता की प्रस्तावना में कहा गया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता का उद्देश्य सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया से संबंधित विधियों का समेकन और संशोधन करना है। समेकित करने का अर्थ है, किसी विशेष विषय से संबंधित सभी विधियों को एकत्रित करना तथा उन्हें इस क्रम में लाना कि समेकन, अधिनियम के लागू होने के समय वर्तमान परिस्थितियों पर लागू होने वाली एक उपयोगी संहिता बन सके।

• विधि की किसी विशेष शाखा को संहिताबद्ध करने का मूल उद्देश्य यह है कि विशेष रूप से निर्णीत किये गए किसी भी बिंदु पर विधि को उस अधिनियम में प्रयुक्त भाषा से ज्ञात किया जाना चाहिये, न कि पूर्ववर्ती अधिनियम से। सिविल प्रक्रिया संहिता दीवानी न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के रूप में एक समेकित संहिता है।

 विस्तार और प्रयोज्यता 

सिविल प्रक्रिया संहिता नगालैंड राज्य और जनजातीय क्षेत्रों को छोड़कर संपूर्ण भारत (जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के बाद 31/10/19 से प्रभावी) तक विस्तारित है। यह आंध्र प्रदेश राज्य और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में अमीनदीवी द्वीप तथा पूर्वी गोदावरी एवं विशाखापट्टनम अभिकरणों तक विस्तारित है। 1976 के संशोधन अधिनियम द्वारा, संहिता के उपबंधों के विस्तार को अनुसूचित क्षेत्रों में भी विस्तारित किया गया है।

 योजना 

सिविल प्रक्रिया संहिता को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

• संहिता का मुख्य भाग जिसमें 158 धाराएँ है।

• (प्रथम) अनुसूची, जिसमें 51 आदेश, नियम और प्ररूप सम्मिलित हैं।

यह धारा एक सारवान् प्रकृति के उपबंधों से निपटनें हेतु अधिकार क्षेत्र के सामान्य सिद्धांतों को निर्धारित करती है, जबकि (प्रथम) अनुसूची, प्रक्रिया और पद्धति, प्रकार एवं आचरण से संबंधित है जिसमें अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सकता है।
       सिविल प्रक्रिया संहिता को विधायिका के बिना संशोधित नहीं किया जा सकता है। संहिता की (प्रथम) अनुसूची, जिसमें आदेश और नियम शामिल हैं, को उच्च न्यायालयों द्वारा संशोधित किया जा सकता है। समग्र रूप से संहिता की योजना को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि (प्रथम) अनुसूची में निहित नियमों में उच्च न्यायालयों द्वारा किये गए संशोधन इस संहिता का भाग बन जाते हैं "जैसे कि संहिता में अधिनियमित" हो. इसलिये धाराओं और नियमों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिये तथा सामंजस्यपूर्ण रूप से समझा जाना चाहिये, परंतु यदि नियम धाराओं के साथ असंगत हैं, धाराओं के प्रावधान अभिभावी होगा।


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