क्योटो प्रोटोकॉल: जलवायु परिवर्तन से निपटने का वैश्विक प्रयास

क्योटो प्रोटोकॉल: एक परिचय

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) एक अंतरराष्ट्रीय संधि (treaty) है, जिसे जलवायु परिवर्तन से निपटने और ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन को कम करने के लिए बनाया गया था। यह संधि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के तहत 11 दिसंबर 1997 को जापान के क्योटो शहर में अपनाई गई थी और 16 फरवरी 2005 को लागू हुई थी।

मुख्य उद्देश्य

क्योटो प्रोटोकॉल का मुख्य उद्देश्य था वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों (जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) के उत्सर्जन को नियंत्रित करना और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना। इसके तहत, विकसित देशों को उनके औद्योगिक गतिविधियों के कारण बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कानूनी रूप से बाध्यकारी (legally binding) जिम्मेदारी दी गई थी।


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क्योटो प्रोटोकॉल के प्रमुख प्रावधान

1. विकसित देशों की ज़िम्मेदारी:

प्रोटोकॉल में कुल 37 विकसित देशों और यूरोपीय संघ (EU) को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 1990 के स्तर से औसतन 5.2% तक कम करने की बाध्यता थी।

विकासशील देशों (जैसे भारत, चीन) पर कोई अनिवार्य कटौती लागू नहीं की गई थी।



2. दो प्रतिबद्धता अवधि (Commitment Periods):

पहली अवधि (2008-2012): विकसित देशों को 1990 के स्तर से 5% कटौती करनी थी।

दूसरी अवधि (2013-2020): इसे "दोहा संशोधन" (Doha Amendment) कहा जाता है, लेकिन कई प्रमुख देशों (जैसे अमेरिका, कनाडा, जापान) ने इसमें भाग नहीं लिया।



3. कार्बन क्रेडिट और उत्सर्जन व्यापार (Carbon Credit & Emission Trading):

देशों को अपने उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करने में मदद के लिए कार्बन ट्रेडिंग सिस्टम लागू किया गया, जिससे कोई भी देश अपनी अतिरिक्त कटौती का लाभ अन्य देशों को बेच सकता था।

"क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (CDM)" के तहत, विकसित देश विकासशील देशों में हरित परियोजनाओं में निवेश कर सकते थे।





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क्योटो प्रोटोकॉल की सीमाएँ और विफलताएँ

1. अमेरिका की भागीदारी नहीं:

अमेरिका, जो दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषकों में से एक था, ने इस संधि को लागू करने से इनकार कर दिया।



2. विकासशील देशों की बढ़ती उत्सर्जन दर:

भारत, चीन और ब्राजील जैसे देशों पर कोई बाध्यता नहीं थी, जबकि इनका औद्योगिक विकास तेज़ी से बढ़ रहा था।



3. पर्याप्त उत्सर्जन कटौती नहीं हुई:

कई देशों ने तय लक्ष्यों को पूरा नहीं किया, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्या बनी रही।





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क्योटो प्रोटोकॉल के बाद क्या हुआ?

क्योटो प्रोटोकॉल की जगह 2015 में पेरिस समझौता (Paris Agreement) आया, जो जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए एक अधिक समावेशी और प्रभावी संधि है।

संक्षेप में:
क्योटो प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए पहला बड़ा अंतरराष्ट्रीय प्रयास था, लेकिन इसकी कई सीमाएँ थीं, जिससे यह पूरी तरह सफल नहीं हो सका। बाद में, पेरिस समझौते के जरिए एक नया वैश्विक प्रयास शुरू किया गया।


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