भारत की न्यायपालिका ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि कानून की व्याख्या केवल शब्दों तक सीमित नहीं होती, बल्कि उसके पीछे के सामाजिक और पेशेवर संबंधों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में ऐसा ही विचार प्रस्तुत करते हुए यह साफ़ कर दिया कि वकील और बार काउंसिल या बार एसोसिएशन के बीच नियोक्ता‑कर्मचारी (Employer–Employee) संबंध नहीं होता। इस फैसले ने न केवल POSH कानून की सीमाओं को रेखांकित किया, बल्कि यह सवाल भी उठाया कि न्याय क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के लिए उचित सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए।
🏛️ मामला: UNS Women Legal Association बनाम Bar Council of India
इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुरोध किया था कि बार काउंसिल्स और बार एसोसिएशन्स में POSH कानून (2013) के अनुसार Internal Complaints Committee (ICC) बनाना अनिवार्य किया जाए। याचिकाकर्ता महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक ठोस, संवेदनशील और प्रभावी शिकायत निवारण प्रणाली चाहते थे, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि अदालत परिसर और अधिवक्ता संघों में कार्यरत महिलाएं यौन उत्पीड़न से सुरक्षित रहें।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए यह कहा कि एडवोकेट्स और बार काउंसिल या उनके सीनियर के बीच कोई "नियोक्ता‑कर्मचारी" जैसा संबंध नहीं होता, इसलिए POSH कानून के तहत ये संस्थाएँ बाध्य नहीं हैं कि वे ICC गठित करें।
📘 POSH कानून: मूल उद्देश्य और सीमाएं
POSH (Prevention of Sexual Harassment of Women at Workplace) Act, 2013 का उद्देश्य महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करना है। यह अधिनियम 2013 में संसद द्वारा पारित किया गया था और इसकी उत्पत्ति सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1997 में दिए गए Vishaka बनाम राज्य राजस्थान के ऐतिहासिक फैसले में हुई थी। इस निर्णय में अदालत ने Vishaka Guidelines जारी की थी, जिनमें स्पष्ट किया गया था कि प्रत्येक कार्यस्थल पर एक स्वतंत्र और निष्पक्ष शिकायत समिति होनी चाहिए।
POSH कानून के तहत हर संस्था को, जहाँ 10 या उससे अधिक कर्मचारी कार्यरत हों, एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) बनानी होती है। इस समिति का कार्य महिलाओं की यौन उत्पीड़न की शिकायतों को सुनना और उचित निर्णय देना होता है।
लेकिन इस कानून की एक प्रमुख शर्त यह है कि यह "नियोक्ता‑कर्मचारी" संबंध पर आधारित है। यानी जहां एक संगठन किसी व्यक्ति को वेतन पर रखता है, काम का पर्यवेक्षण करता है और उसे निकालने का अधिकार रखता है, वहीं POSH कानून प्रभावी होता है।
👩⚖️ वकील क्यों नहीं आते POSH कानून के अंतर्गत?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि अधिवक्ता एक स्वतंत्र पेशेवर (independent professional) होते हैं। वे न तो बार काउंसिल्स के वेतनभोगी कर्मचारी होते हैं, और न ही उनके कार्यों पर सीधा नियंत्रण होता है। इसी कारण, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधिवक्ताओं और बार काउंसिल्स के बीच कोई "employer–employee" संबंध नहीं माना जा सकता।
इसके साथ ही, अधिवक्ता अपने वरिष्ठ अधिवक्ताओं के अधीन रहकर काम करते ज़रूर हैं, लेकिन वह संबंध किसी ठोस संविदात्मक नौकरी की तरह नहीं होता। यह एक पेशेवर सहयोग जैसा है, जहाँ वकील स्वेच्छा से प्रशिक्षण लेते हैं, लेकिन वेतन या सेवा की बाध्यता नहीं होती।
🔍 अदालत की कानूनी व्याख्या
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने POSH एक्ट की धारा 2(f) और 2(o) की व्याख्या करते हुए यह बताया कि 'employee' और 'employer' की जो परिभाषा POSH कानून में दी गई है, उसमें एडवोकेट्स नहीं आते। जब तक संसद इस पर कोई संशोधन नहीं करती, तब तक अदालत ऐसी व्यवस्था थोपने की स्थिति में नहीं है।
हालाँकि, अदालत ने यह भी माना कि वकीलों के लिए एक समुचित शिकायत प्रणाली की आवश्यकता है, ताकि महिला अधिवक्ताओं को कार्यस्थल पर सम्मानजनक और सुरक्षित वातावरण मिल सके।
⚖️ तो क्या महिला एडवोकेट्स के पास कोई रास्ता नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि महिला अधिवक्ताओं को यौन उत्पीड़न के मामलों में पूरी तरह असहाय नहीं माना जा सकता। Advocates Act, 1961 की धारा 35 के तहत अधिवक्ताओं के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। यदि कोई वकील अनुचित व्यवहार करता है, तो उसके खिलाफ संबंधित राज्य बार काउंसिल में शिकायत दर्ज कराई जा सकती है।
इस धारा के तहत बार काउंसिल जांच समिति गठित करती है और यदि आरोप सही पाए जाते हैं, तो दोषी अधिवक्ता को चेतावनी, निलंबन या निष्कासन जैसी सजा दी जा सकती है।
📌 Megha Kotwal Lele और Vishaka गाइडलाइंस का संदर्भ
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में Megha Kotwal Lele बनाम Union of India और Vishaka केस का भी उल्लेख किया, जहाँ अदालत ने कार्यस्थल पर महिलाओं की गरिमा बनाए रखने पर ज़ोर दिया था।
Vishaka केस (1997) में सुप्रीम कोर्ट ने यौन उत्पीड़न को एक मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना था और राज्य से यह अपेक्षा की थी कि वह महिलाओं को सुरक्षित कार्यस्थल प्रदान करने के लिए कदम उठाए।
Megha Kotwal Lele (2013) मामले में अदालत ने कहा था कि सभी सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों को POSH कानून के अनुसार ICC बनानी चाहिए। लेकिन इन दोनों मामलों में भी POSH के दायरे में वही संस्थाएँ आती थीं, जो "employer" के रूप में कार्य करती हैं।
🤔 यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?
इस फैसले ने कई ज़रूरी प्रश्न उठाए हैं:
- क्या पेशेवर स्वतंत्रता का मतलब यह होना चाहिए कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई तंत्र न हो?
- क्या बार काउंसिल जैसी संस्थाओं को नैतिक आधार पर कोई ICC जैसी समिति नहीं बनानी चाहिए, भले ही वह कानूनन बाध्य न हों?
- क्या हमें POSH कानून में संशोधन करके 'स्वतंत्र पेशेवरों' को भी इसके दायरे में लाना चाहिए?
🧭 आगे का रास्ता
सुप्रीम कोर्ट ने तो अपनी सीमाओं का संकेत दे दिया है। अब ज़रूरत है कि संसद और बार काउंसिल जैसी संस्थाएँ पहल करें:
- बार काउंसिल्स को स्वैच्छिक रूप से शिकायत समितियाँ गठित करनी चाहिए, ताकि अधिवक्ताओं के बीच अनुशासन और गरिमा बनी रहे।
- POSH एक्ट में संशोधन पर विचार होना चाहिए, जिससे स्वतंत्र पेशेवरों के लिए भी सुरक्षा व्यवस्था तैयार की जा सके।
- महिला अधिवक्ताओं को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, कि वे किस प्रकार की शिकायतें कहां और कैसे दर्ज करा सकती हैं।
- सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में समय-समय पर जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए, ताकि कार्यस्थल की गरिमा बनी रहे।
🔚 निष्कर्ष
UNS Women Legal Association बनाम Bar Council of India के इस फैसले ने एक संवेदनशील विषय को उजागर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कानून की सीमाओं के भीतर रहकर व्याख्या की है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया कि महिला अधिवक्ताओं की सुरक्षा के लिए अन्य वैकल्पिक व्यवस्थाएँ मौजूद हैं।
अब यह देश की विधायिका और कानूनी संस्थाओं की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे इस खालीपन को भरें और यह सुनिश्चित करें कि न्याय की रक्षा करने वाले खुद भी न्यायपूर्ण और सुरक्षित वातावरण में काम कर सकें।
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