क्या हर गलती के लिए राज्य जिम्मेदार होता है? जानिए संविधान और कोर्ट का नजरिया

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क्या राज्य हमेशा जिम्मेदार होता है?

राज्य की प्रतिनिधिक दायित्व की संवैधानिक व न्यायिक पड़ताल

जब कोई सरकारी कर्मचारी अपनी ड्यूटी के दौरान कोई गलती करता है या किसी व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है, तो एक अहम सवाल उठता है — क्या सरकार (राज्य) उस कर्मचारी के गलत कृत्य के लिए उत्तरदायी मानी जाएगी? यह सवाल सिर्फ कानून की किताबों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे अधिकारों, न्याय और सरकार की जवाबदेही से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। इस लेख में हम समझेंगे कि राज्य की प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liability of the State) का सिद्धांत क्या है, इसकी कानूनी व्याख्या कैसे की गई है, और न्यायालयों ने इस पर समय-समय पर क्या रुख अपनाया है।


📌 "प्रतिनिधिक दायित्व" का अर्थ

Vicarious Liability का अर्थ है – जब कोई एक व्यक्ति दूसरे के किए गए कार्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। उदाहरण के लिए, एक मालिक अपने कर्मचारी के द्वारा ड्यूटी के दौरान किए गए कार्य के लिए जिम्मेदार हो सकता है।

जब यह सिद्धांत राज्य पर लागू होता है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या सरकार भी अपने अधिकारियों/कर्मचारियों द्वारा की गई गलती या लापरवाही के लिए जिम्मेदार ठहराई जा सकती है? यदि हाँ, तो कब? और यदि नहीं, तो क्यों नहीं?

📘 संवैधानिक आधार

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300 के अनुसार, भारत सरकार और राज्य सरकारें उसी प्रकार मुकदमों में पक्षकार बन सकती हैं, जैसे ब्रिटिश भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी या क्राउन के विरुद्ध हुआ करता था।

अनुच्छेद 300 की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि वर्तमान संविधान ने भारत सरकार अधिनियम 1935, 1915 और 1858 के प्रावधानों को आधार बनाकर राज्य की दायित्व तय की है। यानी सरकार की जवाबदेही का जो ढाँचा ब्रिटिश काल में था, उसी को आज भी मौलिक रूप में स्वीकार किया गया है।

⚖️ महत्वपूर्ण निर्णय: एक ऐतिहासिक झलक

1. पेनिन्सुलर एंड ओरिएंटल स्टीम नेविगेशन कंपनी बनाम सचिव, 1861

इस केस ने पहली बार "संप्रभु कार्य" (sovereign functions) और "असंप्रभु कार्य" (non-sovereign functions) के बीच अंतर स्पष्ट किया। निर्णय के अनुसार, राज्य केवल अपने असंप्रभु कर्तव्यों के लिए जिम्मेदार हो सकता है। जैसे – वाणिज्यिक गतिविधियाँ, व्यापारिक समझौते आदि।

2. हॉलिडे बनाम ईस्ट इंडिया कंपनी (1820)

यह केस बताता है कि यदि कार्य राज्य की संप्रभु शक्तियों के अंतर्गत आता है, तो उसके लिए क्षतिपूर्ति नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने कहा कि पुलिस कार्य जैसे कानून व्यवस्था बनाए रखना संप्रभु कार्य है और इसमें हुई गलती के लिए राज्य पर दायित्व नहीं थोपा जा सकता।

⚖️ स्वतंत्र भारत के चर्चित मामले

3. कस्तूरी लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1965)

एक पुलिस अधिकारी ने सोना जब्त किया और बाद में उसका दुरुपयोग कर दिया गया। पीड़ित ने राज्य के खिलाफ मुकदमा दायर किया। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि चूंकि यह कार्य संप्रभु शक्तियों के अंतर्गत आता है, राज्य जिम्मेदार नहीं होगा।

इस फैसले की आलोचना हुई क्योंकि इससे पीड़ित को न्याय नहीं मिला, जबकि गलती स्पष्ट रूप से राज्य के कर्मचारी की थी।

📚 राज्य के कर्तव्यों का वर्गीकरण

1. संप्रभु कार्य – कानून व्यवस्था बनाए रखना, युद्ध अभियान, राष्ट्रीय सुरक्षा, न्यायिक कार्य आदि।

2. असंप्रभु कार्य – वाणिज्यिक, निर्माण, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक सेवाएँ आदि।

अदालतों ने यह स्पष्ट किया कि सिर्फ असंप्रभु कार्यों के लिए ही राज्य पर दायित्व थोपा जा सकता है। इसका आधार यह है कि इन क्षेत्रों में सरकार एक सामान्य संस्था की तरह व्यवहार करती है, न कि संप्रभु शक्ति की तरह।

🔍 आधुनिक दृष्टिकोण और न्यायिक विकास 

हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने पीड़ितों को बेहतर न्याय दिलाने के लिए इस सिद्धांत का पुनर्पाठ किया है।

4. रुदुल साह बनाम बिहार राज्य (1983)

एक व्यक्ति को बिना कानूनी अधिकार के तेरह वर्ष तक जेल में रखा गया था। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह न सिर्फ मूल अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि राज्य पर मौद्रिक दायित्व भी बनता है। उसे ₹35,000 का मुआवज़ा दिया गया।

5. नीलाबति बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993)

एक व्यक्ति पुलिस हिरासत में मारा गया। कोर्ट ने मुआवज़ा प्रदान किया और कहा कि राज्य संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन पर मौद्रिक क्षतिपूर्ति देने के लिए बाध्य है, भले ही घटना संप्रभु कार्य से जुड़ी हो 

इन फैसलों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जहाँ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, वहाँ संप्रभुता का तर्क स्वीकार नहीं किया जाएगा। संविधान के अधिकार, सरकार की शक्तियों से ऊपर हैं।

 अनुच्छेद 32 और 226 की भूमिका

इन अनुच्छेदों के अंतर्गत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार प्राप्त है कि वे सरकार को मौद्रिक क्षतिपूर्ति का आदेश दे सकती हैं, यदि किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन हुआ हो।

अब न्यायपालिका यह मानती है कि यदि राज्य अपने अधिकारियों की लापरवाही के चलते किसी व्यक्ति की गरिमा या जीवन के अधिकार का हनन करता है, तो उसे केवल माफ़ नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका प्रतिकार (remedy) भी जरूरी है।

 निष्कर्ष

जहाँ संविधान राज्य को अनेक शक्तियाँ देता है, वहीं यह उससे जवाबदेही भी चाहता है। प्रतिनिधिक दायित्व का सिद्धांत एक ऐसा औजार है, जिसके माध्यम से पीड़ितों को न्याय मिल सकता है। हालांकि अभी भी "संप्रभु कार्य" बनाम "असंप्रभु कार्य" का भेद कई बार न्याय से वंचित कर देता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता ने इस सिद्धांत को मानवीय दृष्टिकोण से पुनर्परिभाषित किया है।

अब न्याय केवल तकनीकी आधारों पर नहीं, बल्कि नैतिकता और संविधान के मूल्यों पर आधारित होता जा रहा है।

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