पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास
1. परिचय
पर्यावरण हमारे जीवन का मूल आधार है। यह केवल जल, वायु और भूमि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके अंतर्गत संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र आता है, जिसमें मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और सूक्ष्म जीवाणु शामिल हैं। पर्यावरण हमें जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करता है, जैसे कि स्वच्छ हवा, शुद्ध पानी, भोजन और ऊर्जा। लेकिन आधुनिक औद्योगीकरण, बढ़ती जनसंख्या, अवैज्ञानिक विकास, वनों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद से प्रदूषण में तेजी से वृद्धि हुई है, जिससे जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, जैव विविधता का ह्रास और प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएँ बढ़ गई हैं। वायु प्रदूषण के कारण सांस संबंधी बीमारियाँ बढ़ रही हैं, जल प्रदूषण से समुद्री जीवन संकट में है, और भूमि क्षरण के कारण कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य भी है। सतत विकास की अवधारणा इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे हम वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को संरक्षित रख सकते हैं। इस लेख में हम पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पहलुओं, कानूनी प्रावधानों और सतत विकास की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा करेंगे।2. पर्यावरण की परिभाषा और महत्व
पर्यावरण (Environment) शब्द फ्रेंच भाषा के "Environmer" से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है "चारों ओर से घेरना"। पर्यावरण में वे सभी जैविक और अजैविक तत्व शामिल होते हैं, जो जीवन को प्रभावित करते हैं। इसमें वायु, जल, भूमि, वनस्पति, जीव-जंतु और पारिस्थितिक तंत्र की अन्य सभी इकाइयाँ सम्मिलित होती हैं। यह न केवल भौतिक तत्वों तक सीमित है, बल्कि इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण केवल मानव जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त जीव-जगत के अस्तित्व और विकास के लिए आवश्यक है। भारत में पर्यावरण संरक्षण की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में जल, वायु, पृथ्वी और वृक्षों की महिमा का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरण को देवतुल्य माना गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में पृथ्वी को 'सर्वदा पालन करने योग्य' बताया गया है। मनुस्मृति में वृक्षों को काटने वाले के लिए दंड का प्रावधान किया गया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय समाज में पर्यावरण संरक्षण को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को राज्य की जिम्मेदारी बताया गया है। इसमें उल्लेख है कि जलाशयों, वनों और कृषि भूमि की रक्षा करना राज्य का दायित्व है। इस काल में वन संरक्षण और वन्यजीवों की रक्षा के लिए कड़े नियम बनाए गए थे। बौद्ध और जैन धर्म में भी पर्यावरण संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया। महात्मा बुद्ध और महावीर ने अहिंसा का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जो न केवल मानव जीवन, बल्कि समस्त जीव-जंतुओं के प्रति करुणा और संवेदनशीलता का संदेश देता है। मध्यकाल में भी पर्यावरण संरक्षण की परंपरा बनी रही। मुगलों ने अपने शासनकाल में बाग-बगीचों का निर्माण कराया, जिससे हरित वातावरण को बढ़ावा मिला। मुगल बादशाह बाबर, अकबर और शाहजहाँ के शासनकाल में सुंदर उद्यानों की स्थापना की गई। अकबर ने वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया और जल संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। औरंगजेब के शासनकाल में 'मुहतसिब' नामक अधिकारी नियुक्त किए गए, जिनका कार्य सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता बनाए रखना और प्रदूषण फैलाने वालों पर नियंत्रण रखना था। आधुनिक भारत में, पर्यावरण संरक्षण को कानूनी मान्यता प्राप्त है। संविधान के 42वें संशोधन (1976) में पर्यावरण संरक्षण को राज्य और नागरिकों का मौलिक कर्तव्य बनाया गया। अनुच्छेद 48(क) के तहत राज्य को पर्यावरण और वन्यजीवों की रक्षा करने का निर्देश दिया गया, जबकि अनुच्छेद 51(ग) के तहत नागरिकों को पर्यावरण की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया गया। इसके अलावा, भारतीय न्यायपालिका ने कई ऐतिहासिक निर्णयों में पर्यावरण संरक्षण को जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के अंतर्गत मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। भारत में कई पर्यावरण संरक्षण कानून भी बनाए गए हैं। वन संरक्षण अधिनियम, 1980, जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 पर्यावरण की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण विधियां हैं। भारत सरकार द्वारा ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘नमामि गंगे योजना’ और ‘राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT)’ जैसी पहलें पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए चलाई जा रही हैं। औद्योगीकरण, शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि और वनों की कटाई के कारण पर्यावरण संकट गहराता जा रहा है। प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और प्राकृतिक आपदाएँ आधुनिक युग में गंभीर समस्याएँ बन गई हैं। बढ़ते प्रदूषण के कारण मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, जिससे विभिन्न बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम चक्र में असंतुलन आ रहा है, जिससे कृषि और जल संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए सतत विकास (Sustainable Development) की अवधारणा को अपनाना आवश्यक है। सतत विकास वह प्रक्रिया है, जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को इस प्रकार पूरा किया जाता है कि भविष्य की पीढ़ियों के संसाधनों से समझौता न हो। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2015 में सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की घोषणा की, जिनमें पर्यावरण संरक्षण को प्रमुखता दी गई। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग, वृक्षारोपण, जल संरक्षण और अपशिष्ट प्रबंधन सतत विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है। छोटे-छोटे प्रयास जैसे कि प्लास्टिक का कम उपयोग, जल संरक्षण, अधिक वृक्षारोपण और कचरे का उचित निपटान पर्यावरण संरक्षण में सहायक हो सकते हैं। यदि समाज के सभी लोग पर्यावरण संरक्षण की दिशा में मिलकर प्रयास करें, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और स्वस्थ पर्यावरण की संरचना की जा सकती है।
3. पर्यावरण संरक्षण का ऐतिहासिक दृष्टिकोण
भारत में पर्यावरण संरक्षण की परंपरा प्राचीन काल से मौजूद रही है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में जल, वायु, वनस्पति और जीव-जंतुओं की रक्षा को धार्मिक और नैतिक कर्तव्य माना गया है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने की शिक्षा दी गई है, जबकि मनुस्मृति में जल स्रोतों और वनों की सुरक्षा का निर्देश दिया गया है। मौर्य काल में सम्राट अशोक ने वृक्षारोपण, वन्यजीव संरक्षण और जल संचयन को बढ़ावा दिया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन की विस्तृत रूपरेखा मिलती है। मुगल शासकों ने भी बाग-बगीचों और जल स्रोतों के संरक्षण पर ध्यान दिया। आधुनिक भारत में 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद पर्यावरण संरक्षण को लेकर कई महत्वपूर्ण कानून बनाए गए। इनमें जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974, वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981, और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 प्रमुख हैं। इन कानूनों ने पर्यावरण संरक्षण को कानूनी आधार प्रदान किया और आज भी सतत विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं।
4. संविधान और पर्यावरण संरक्षण
भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण को एक महत्वपूर्ण विषय माना गया है। 42वें संविधान संशोधन (1976) के तहत पर्यावरण संरक्षण से जुड़े प्रावधान जोड़े गए। अनुच्छेद 48A के अनुसार, राज्य को पर्यावरण की रक्षा और सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए तथा वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। इसके अलावा, अनुच्छेद 51A(g) नागरिकों को यह कर्तव्य सौंपता है कि वे प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करें और पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखें। अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के अंतर्गत, सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण को एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है। भारत की न्यायपालिका ने एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ, वेल्लोर सिटीजन्स वेलफेयर फोरम बनाम भारत संघ और सुबाष कुमार बनाम बिहार राज्य जैसे मामलों में पर्यावरण संरक्षण को मजबूती दी। इसके अलावा, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) की स्थापना 2010 में पर्यावरण संबंधी विवादों के निपटारे के लिए की गई थी। संविधान में दिए गए ये प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं बल्कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है।
5. पर्यावरणीय नीतियाँ और कानून
कानून | वर्ष | उद्देश्य |
---|---|---|
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम | 1986 | पर्यावरण की सुरक्षा और प्रदूषण नियंत्रण |
जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम | 1974 | जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना |
वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम | 1981 | वायु प्रदूषण को नियंत्रित करना |
वन संरक्षण अधिनियम | 1980 | वनों की रक्षा और अतिक्रमण रोकना |
6. प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय संधियाँ
पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संधियाँ और समझौते किए गए हैं, जिनका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर सतत विकास को बढ़ावा देना और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को रोकना है। 1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीडन के स्टॉकहोम में "मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन" आयोजित किया गया। यह पहला वैश्विक प्रयास था, जिसने पर्यावरणीय मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय नीति निर्माण का हिस्सा बनाया। इस सम्मेलन में "स्टॉकहोम डिक्लेरेशन" पारित किया गया, जिसमें 26 महत्वपूर्ण सिद्धांत शामिल थे। इन सिद्धांतों में पर्यावरण संरक्षण, सतत विकास और प्रदूषण नियंत्रण को प्राथमिकता दी गई थी। इसके बाद 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में "संयुक्त राष्ट्र सतत विकास सम्मेलन" आयोजित किया गया, जिसे "पृथ्वी शिखर सम्मेलन" भी कहा जाता है। इस सम्मेलन में "रियो डिक्लेरेशन", "एजेंडा 21", "जैव विविधता संधि" और "जलवायु परिवर्तन रूपरेखा समझौता" जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज पारित किए गए। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाना था। इसने "सतत विकास" की अवधारणा को वैश्विक नीति में शामिल किया और देशों को प्रदूषण नियंत्रण, वन संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखने के लिए प्रेरित किया। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए 1997 में "क्योटो प्रोटोकॉल" अपनाया गया। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना था। इस संधि के तहत विकसित देशों को उत्सर्जन में कटौती करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया गया। हालांकि, विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानता के कारण यह संधि पूरी तरह सफल नहीं रही। 2015 में "पेरिस समझौता" अपनाया गया, जो जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए सबसे व्यापक और प्रभावी समझौता माना जाता है। इस समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और इसे 1.5 डिग्री तक सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। इसमें देशों को अपने-अपने "राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान" (NDCs) प्रस्तुत करने के लिए कहा गया, जिससे कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित किया जा सके। इन अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संधियों का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण को वैश्विक स्तर पर एक प्राथमिकता बनाना है। हालांकि, राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी चुनौतियों के कारण इनका क्रियान्वयन हमेशा प्रभावी नहीं हो पाता, फिर भी ये संधियाँ वैश्विक पर्यावरणीय संकटों से निपटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम मानी जाती हैं।
8. सतत विकास और इसका महत्व
सतत विकास (Sustainable Development) का अर्थ है वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार करना कि भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। यह अवधारणा पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक कारकों का संतुलन बनाए रखने पर आधारित है। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (SDGs) भी इसी सिद्धांत पर कार्य करते हैं।
9. निष्कर्ष
पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य भी है। हमें जल, वायु, भूमि और जैव विविधता के संरक्षण के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर प्रयास करने चाहिए। सतत विकास को अपनाकर ही हम एक सुरक्षित और स्वस्थ भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।
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