भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपने अद्भुत कार्यों, न्यायप्रियता और निर्भीक निर्णयों से न्याय व्यवस्था को नई दिशा दी है। इन्हीं में से एक उल्लेखनीय नाम है – न्यायमूर्ति सुजाता विक्रम मनोहर। वे न केवल सुप्रीम कोर्ट की जज रहीं, बल्कि महाराष्ट्र और केरल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने का भी गौरव प्राप्त किया। न्याय के क्षेत्र में उनका योगदान, खासकर महिला अधिकारों और संवैधानिक मूल्य संरक्षण के संदर्भ में, बेहद प्रेरणादायक और ऐतिहासिक रहा है।
इस लेख में हम न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर के जीवन, शिक्षा, करियर, ऐतिहासिक फैसलों और उनके योगदान पर विस्तृत चर्चा करेंगे
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
सुजाता विक्रम मनोहर का जन्म उन्नीस सौ चौबीस (1924) में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित परिवार से थीं। उनके पिता के.टी. देसाई, बंबई हाईकोर्ट के जाने-माने न्यायाधीश थे। उनके घर का वातावरण ही न्याय, संविधान और विधि के आदर्शों से ओतप्रोत था।
शिक्षा के क्षेत्र में वे बचपन से ही मेधावी रहीं। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और वहां के प्रतिष्ठित संस्थान लेडी मार्गरेट हॉल से डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे इंग्लैंड की बार में शामिल हुईं और फिर भारत लौटीं।
अधिवक्ता के रूप में करियर की शुरुआत
भारत लौटने के बाद, सुजाता मनोहर ने बंबई हाईकोर्ट में विधिक अभ्यास शुरू किया। उनका फोकस मुख्यतः संविधान, वाणिज्यिक कानून, और नागरिक अधिकारों पर था। उनके पास कार्पोरेट लॉ और टैक्सेशन का गहरा अनुभव था।
उनकी निर्भीकता, बौद्धिक स्पष्टता और विश्लेषण की तीव्रता ने उन्हें जल्द ही बंबई हाईकोर्ट के प्रतिष्ठित वकीलों में गिना जाने लगा। उनकी मेहनत और नैतिक प्रतिबद्धता ने उन्हें न्यायिक सेवा के लिए उपयुक्त उम्मीदवार बना दिया।
न्यायिक जीवन की शुरुआत
उन्हें उन्नीस सौ बयासी (1982) में बंबई हाईकोर्ट की न्यायधीश नियुक्त किया गया। इस नियुक्ति के साथ वे उस समय के कुछ गिनी-चुनी महिला जजों में शामिल हो गईं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए, जिनमें संवैधानिक अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं और महिला सशक्तिकरण से संबंधित मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण बेहद उन्नत और प्रगतिशील रहा।
उनकी न्यायिक क्षमता और निष्पक्ष सोच के कारण उन्हें उन्नीस सौ चौरानवे (1994) में बंबई हाईकोर्ट की कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
केरल हाईकोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश
उन्हें उसी वर्ष केरल हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया, जिससे वे राज्य की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बन गईं। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, क्योंकि किसी भी दक्षिण भारतीय राज्य के हाईकोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने का यह पहला उदाहरण था।
केरल की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को देखते हुए यह कदम महिला अधिकारों और लैंगिक न्याय के क्षेत्र में एक मजबूत संदेश लेकर आया।
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति
उन्नीस सौ चौरानवे के अंतिम महीनों में ही उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वहां उन्होंने कई ऐतिहासिक मामलों में भाग लिया और अपने न्यायिक विचारों से न्यायपालिका की गरिमा को और समृद्ध किया।
उनकी सबसे प्रसिद्ध न्यायिक दखल उस समय देखने को मिली जब उन्होंने महिलाओं के मौलिक अधिकारों को लेकर फैसला सुनाया कि राज्य या समाज किसी महिला को उसकी मर्यादा के खिलाफ नौकरी करने से रोक नहीं सकता।
ऐतिहासिक फैसला: एयर इंडिया बनाम निर्भया का मामला
एक महत्वपूर्ण केस था – Air India vs. Nargesh Meerza (एयर इंडिया बनाम नरगेश मीरजा)। यह मामला महिला एयर होस्टेस की सेवा शर्तों से जुड़ा हुआ था, जिसमें यह प्रावधान था कि महिला कर्मचारियों की नौकरी शादी या गर्भवती होने के बाद स्वतः समाप्त हो जाएगी। इस नियम को चुनौती दी गई।
इस मामले में न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर ने स्पष्ट कहा कि:
> "किसी महिला को उसकी जैविक विशेषताओं या निजी जीवन के चुनावों के कारण नौकरी से निकालना असंवैधानिक है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का स्पष्ट उल्लंघन है।"
यह फैसला एक मील का पत्थर साबित हुआ, जिसने महिला कर्मचारियों के रोजगार अधिकारों को संरक्षित किया और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध एक मजबूत संदेश दिया।
स्वतंत्रता और निष्पक्षता की प्रतीक
न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर ने अपने कार्यकाल में यह सुनिश्चित किया कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता, सम्मान और समानता का उल्लंघन न हो। उनके फैसले अक्सर संविधान की मूल भावना को केंद्र में रखते थे।
उनकी न्यायिक शैली तर्क, संवेदना और गहरी संवैधानिक समझ से भरपूर थी। वे न्याय के क्षेत्र में कभी भी लिंग, धर्म या जाति के आधार पर किसी प्रकार का पूर्वग्रह नहीं रखती थीं।
सेवानिवृत्ति और आगे का योगदान
न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर उन्नीस सौ अठ्ठानवे (1998) में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में भी योगदान दिया और महिला अधिकारों से जुड़े कई सामाजिक संगठनों से जुड़ी रहीं।उनकी लेखनी, भाषणों और व्याख्यानों में आज भी न्याय के प्रति प्रतिबद्धता, संविधान के मूल्यों की रक्षा और मानवाधिकारों की चेतना स्पष्ट दिखाई देती है।
न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर का महत्व
वे भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीशों में से एक थीं जिन्होंने दो राज्यों में यह पद संभाला।
उनके निर्णयों में महिलाओं के अधिकार, मानव गरिमा, न्यायिक स्वतंत्रता और नैतिक विवेक का स्पष्ट झलक मिलती है।
वे उन कुछ महिला न्यायाधीशों में रही हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पीठों में भाग लेकर महत्वपूर्ण फैसलों को दिशा दी।
निष्कर्ष
न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर केवल एक न्यायाधीश नहीं थीं, वे भारतीय न्यायपालिका में संवेदनशीलता, बौद्धिकता और न्यायप्रियता का सजीव उदाहरण थीं। उनका जीवन और कार्य भारत की लैंगिक समानता, मानवाधिकार, और न्याय की स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
आज जब हम न्यायपालिका में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा करते हैं, तो न्यायमूर्ति मनोहर का नाम प्रेरणा स्रोत के रूप में सामने आता है। उनका जीवन यह दर्शाता है कि एक दृढ़ संकल्पित महिला किस प्रकार कानून और संविधान की राह पर चलते हुए समाज में बदलाव ला सकतीहै
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