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2. परिभाषा:
विनिर्दिष्ट अनुतोष का अर्थ है—न्यायालय द्वारा ऐसा आदेश देना जिससे किसी व्यक्ति को क्षतिपूर्ति देने के बजाय प्रत्यक्ष रूप से किसी कार्य को करने या न करने के लिए बाध्य किया जाए।
उदाहरण –
संपत्ति की वापसी
संविदा का पालन
घोषणात्मक राहत
संविदा का संशोधन या रद्दीकरण आदि।
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3. अधिनियम का विकास (Evolution):
प्रथम बार यह अधिनियम वर्ष 1877 में लागू हुआ।
विधि आयोग की सिफारिशों के आधार पर इसे 1963 में दोबारा अधिनियमित किया गया।
पुनः अधिनियमन का उद्देश्य था इसे आधुनिक, न्यायपूर्ण और अधिक व्यावहारिक बनाना।
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4. प्रकृति (Nature):
यह अधिनियम न्यायालय की विवेकाधीन शक्तियों को संगठित करता है।
इसका स्वरूप प्रक्रियात्मक (procedural) है, साम्यिक नहीं (substantive)।
यह अधिनियम सिविल प्रकृति का है और केवल मौजूदा अधिकारों के प्रवर्तन हेतु उपाय देता है, नए अधिकार नहीं उत्पन्न करता।
धारा 4 स्पष्ट करती है कि यह अधिनियम दंड विधियों के स्थान पर नहीं है।
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5. सीमा (Limitations):
यह अधिनियम पूर्ण नहीं है; यह हर प्रकार के प्रतिकार (remedy) को समाहित नहीं करता।
अशोक कुमार श्रीवास्तव बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी (1998) में न्यायालय ने कहा—
> "यह अधिनियम केवल संवादों के पालन तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी न्यायालय को अनुतोष देने की शक्ति देता है, फिर भी यह एक पूर्ण विधान नहीं है।"
कुछ मामलों में केवल क्षतिपूर्ति ही पर्याप्त उपाय मानी जाती है, और विशेष अनुतोष की आवश्यकता नहीं होती।
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6. सुसंगत प्रबंधनों की चर्चा (Relevant Provisions of the Act):
(क) अध्याय 1 – संपत्ति की पुनः प्राप्ति (धारा 5 से 8):
धारा 5: विधिपूर्वक स्वत्व रखने वाला व्यक्ति संपत्ति का कब्जा वापस ले सकता है।
धारा 6: यदि किसी व्यक्ति को बलपूर्वक बेदखल कर दिया जाए, तो वह व्यक्ति न्यायालय से कब्जा बहाल कराने की मांग कर सकता है।
धारा 7-8: ये धाराएँ जंगम संपत्ति के कब्जे की वापसी से संबंधित हैं।
> धारा 5 और 6 – स्थावर संपत्ति (Immovable property)
धारा 7 और 8 – जंगम संपत्ति (Movable property)
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(ख) अध्याय 2 – संवादों का विनिर्दिष्ट पालन (धारा 9 से 25):
वर्तमान समय में अधिकतर संबंधों का आधार संविदा होता है।
जब संविदा भंग हो जाती है और क्षतिपूर्ति पर्याप्त नहीं होती, तब न्यायालय संविदा पालन का आदेश देता है।
उदाहरण – विवाह स्थल बुकिंग, कला वस्तुओं का स्थानांतरण, आदि।
मुख्य धाराएँ:
धारा 10–14: किस प्रकार की संविदाएँ विनिर्दिष्ट पालन योग्य हैं।
धारा 16: "स्वच्छ हाथों" के सिद्धांत के तहत पक्षकार को स्वयं ईमानदार होना चाहिए।
धारा 20: न्यायालय को विवेकाधिकार है कि वह अनुतोष दे या नहीं।
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(ग) अध्याय 3–5: संवादों का संशोधन, रद्दीकरण और विखंडन
धारा 26 (संशोधन / Rectification):
जब लिखित संविदा में त्रुटि हो और वह वास्तविक आशय को न दर्शाए, तो उसे संशोधित किया जा सकता है।
धारा 31-33 (रद्दीकरण / Cancellation):
जब संविदा शून्य या शून्यकरणीय हो या उसका उपयोग किसी पक्ष को नुकसान पहुँचाने के लिए हो रहा हो, तो न्यायालय उसका रद्दीकरण कर सकता है।
> "प्रसिद्धि" (Rectification) का तात्पर्य है – संविदा में त्रुटियों को सुधारना ताकि उसका वास्तविक आशय स्पष्ट हो सके।
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(घ) अध्याय 6 – घोषणात्मक अनुतोष (धारा 34-35):
धारा 34: यदि कोई व्यक्ति अपनी विधिक हैसियत या अधिकार की घोषणा चाहता है, तो न्यायालय डिक्री पारित कर सकता है।
जैसे – संपत्ति पर दावा करने के लिए घोषणा कि "मैं इसका स्वामी हूँ।"
धारा 35: घोषणात्मक डिक्री के परिणाम स्वरूप, अन्य पक्षों के अधिकार बाधित हो सकते हैं।
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7. निष्कर्ष:
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 भारतीय न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह केवल एक साधारण क्षतिपूर्ति पर आधारित विधि नहीं है, बल्कि न्यायालय को वास्तविक न्याय सुनिश्चित करने हेतु प्रभावी उपायों की अनुमति देता है।
हालाँकि यह अधिनियम पूर्ण नहीं है, फिर भी यह एक सशक्त विधिक औजार है जो समाज में निष्पक्षता और न्याय की स्थापना में सहायक है।
आपकी राय जरूर साझा करें। धन्यवाद🙏
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