हम जब भी किसी व्यक्ति या विचार को समझना चाहते हैं, तो सबसे पहले उसकी पृष्ठभूमि और इतिहास को जानते हैं।
ठीक वैसे ही, किसी कानून को समझने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि वह कानून कब बना, क्यों बना और समय के साथ उसमें क्या-क्या बदलाव हुए।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act) भी ऐसा ही एक अधिनियम है, जो सीधे-सीधे हमारे संविदात्मक और संपत्ति अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
लेकिन इस कानून को सही से समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि:
इसकी शुरुआत कहाँ से हुई,
ब्रिटिश काल में इसका कैसा स्वरूप था,
और आज़ादी के बाद इसमें कैसे-कैसे सुधार हुए।
इस लेख में हम जानेंगे कि यह अधिनियम कैसे 1877 से शुरू होकर 1963 में एक नया रूप लेता है, और फिर 2018 में एक बड़ा बदलाव लाता है — जिससे भारत में न्यायिक राहत की प्रकृति ही बदल जाती है।
तो चलिए, चलते हैं इस अधिनियम की इतिहास यात्रा की ओर...
🕰️ विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में विनिर्दिष्ट अनुतोष (Specific Relief) का कानूनी ढाँचा मूल रूप से ब्रिटिश न्यायालयों द्वारा विकसित सामान्य विधि सिद्धांतों (Common Law Principles of Equity) पर आधारित रहा है। इसका आधार न्यूयॉर्क सिविल कोड, 1862 के प्रारूप पर रखा गया था, जिसे भारत में Specific Relief Act, 1877 के रूप में लागू किया गया।
इस अधिनियम में समय-समय पर कई संशोधन किए गए:
1882
1891
1894
1929
1940
1957
इन संशोधनों का उद्देश्य था न्याय की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी और प्रासंगिक बनाना।
🏛️ सिविल प्रक्रिया संहिता से अलग पहचान
ब्रिटिश भारत में कई प्रयास हुए कि इसे सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) का ही हिस्सा बना दिया जाए, लेकिन न्यायालयों को यह स्पष्ट प्रतीत हुआ कि विशिष्ट अनुतोष (Specific Relief) जैसे विषयों को एक स्वतंत्र अधिनियम की आवश्यकता है।
हालांकि भारत सरकार ने स्वतंत्र Specific Relief Code पेश किया, लेकिन वह पारित नहीं हो सका।
📜 नवी विधि आयोग की सिफारिश और 1963 का अधिनियम
बाद में नवी विधि आयोग (9th Law Commission) की सिफारिश पर भारत सरकार ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 का प्रारूप तैयार किया, जिसे
👉 13 दिसंबर 1963 को संसद द्वारा पारित किया गया,
और
👉 1 मार्च 1964 से लागू कर दिया गया।
इस अधिनियम ने पुराने कानून को हटाकर एक अधिक सुव्यवस्थित, न्यायोचित और व्यावहारिक ढांचा स्थापित किया।
🔧 2018 का संशोधन: एक बड़ा परिवर्तन
समय के साथ व्यापारिक और संविदात्मक मामलों की प्रकृति जटिल होती गई, जिसके परिणामस्वरूप यह आवश्यकता महसूस की गई कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 को आधुनिक व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जाए।
भारत सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया कि भारत के आर्थिक विकास, बुनियादी ढाँचे की परियोजनाओं की रक्षा, और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए यह ज़रूरी है कि इस अधिनियम को समयानुकूल संशोधित किया जाए।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विनिर्दिष्ट अनुतोष (संशोधन) अधिनियम, 2018 (Act No. 18 of 2018) संसद द्वारा पारित किया गया, जिसे 1 अगस्त 2018 को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई और यह अधिनियम 1 अक्टूबर 2018 से प्रभावी हुआ।
इस संशोधन ने संविदा के पालन को एक अपवाद से बदलकर सामान्य नियम के रूप में स्थापित किया, जिससे व्यापारिक स्थिरता, समयबद्ध न्याय और निवेशकों का विश्वास सुनिश्चित हो सके।
कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ किसी संविदा (Contract) को उसकी प्रकृति के कारण विशिष्ट रूप से लागू (Specifically Enforced) नहीं किया जा सकता और न ही उस संविदा के उल्लंघन के कारण हुए नुकसान की भरपाई केवल प्रतिपूरक अनुतोष (Compensatory Relief) से की जा सकती है। ऐसे मामलों में न्यायालय निवारक अनुतोष (Preventive Relief) प्रदान करता है, जिसका उद्देश्य संविदा उल्लंघन को रोकना होता है, ना कि पक्षकार को किसी कार्य को करने के लिए विवश करना।
उदाहरण के रूप में, मान लीजिए क लखनऊ के आलमबाग क्षेत्र का एक व्यक्ति ख नामक गायक (Singer) से किसी विशेष कार्यक्रम में प्रस्तुति देने के लिए अनुबंधित करता है। इस अनुबंध में यह शर्त होती है कि कार्यक्रम की निर्धारित तिथि और समय के दौरान वह गायक किसी अन्य स्थान पर कोई प्रस्तुति नहीं देगा।
अब यदि वह गायक अनुबंध का उल्लंघन करता है और किसी अन्य स्थान पर प्रस्तुति देने का प्रयास करता है, तो न्यायालय उसे जबरन कार्यक्रम में गाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। लेकिन, न्यायालय निवारक अनुतोष के अंतर्गत एक अंतरिम या स्थायी निषेधाज्ञा (Injunction) जारी कर सकता है, जिससे वह गायक अन्यत्र प्रस्तुति न दे सके।
इस प्रकार का अनुतोष इसलिए दिया जाता है ताकि अनुबंध की वैधता बनी रहे और अनुबंध की शर्तों के उल्लंघन से उत्पन्न होने वाले नुकसान को रोका जा सके। इसका उद्देश्य यह नहीं है कि व्यक्ति को जबरन संविदा पालन के लिए मजबूर किया जाए, बल्कि यह सुनिश्चित करना होता है कि वह व्यक्ति ऐसा कोई कार्य न करे जिससे संविदा का उल्लंघन हो।
✅ उदाहरण – फ़िल्म अभिनेता के साथ अनुबंध का मामला:
मान लीजिए कि एक फ़िल्म निर्माता ने एक प्रसिद्ध अभिनेता के साथ अनुबंध किया कि वह आगामी छह महीनों तक केवल उसी निर्माता की फ़िल्म में अभिनय करेगा और किसी अन्य निर्माता के साथ काम नहीं करेगा। इस अनुबंध में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि अभिनेता किसी अन्य निर्माता के साथ कार्य नहीं करेगा।
कुछ समय बाद वह अभिनेता अनुबंध तोड़कर किसी दूसरे निर्माता के साथ फ़िल्म साइन कर लेता है।
अब इस स्थिति में:
न्यायालय उस अभिनेता को जबरन अभिनय करने के लिए विवश नहीं कर सकता, क्योंकि यह एक व्यक्तिगत सेवा का मामला है और इसे बलपूर्वक लागू कराना न्यायसंगत नहीं होगा।
लेकिन, न्यायालय निवारक अनुतोष के रूप में एक निषेधाज्ञा (injunction) जारी कर सकता है, जिससे अभिनेता को दूसरे निर्माता के साथ काम करने से रोका जा सके।
ऐसा इसलिए कि दूसरे निर्माता के साथ काम करना मूल अनुबंध का उल्लंघन है।
🔍 महत्त्वपूर्ण बात यह है कि:
निवारक अनुतोष का उद्देश्य अनुबंध उल्लंघन को रोकना होता है, न कि किसी को जबरदस्ती अनुबंध पूरा करने के लिए मजबूर करना। इसे केवल उन मामलों में लागू किया जाता है जहाँ नुकसान की भरपाई मात्र प्रतिकार से नहीं हो सकती।
संशोधन बेहद महत्वपूर्ण था क्योंकि इसके अंतर्गत:
🔹 "1963 में विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम पारित किया गया..."
👉 इसका मतलब:
सन 1963 में "Specific Relief Act" नाम का एक कानून बना, जो यह तय करता है कि अदालत किस तरह से राहत (relief) दे सकती है — खासकर तब जब कोई संविदा (contract) तोड़ी जाती है।
🔹 "...जिसके तहत न्यायालय को विवेक की शक्ति प्रदान की गई..."
👉 मतलब:
अदालत को यह छूट (discretion) दी गई कि वह मामले को देखकर तय करे कि किस प्रकार की राहत दी जाए —
मसलन:
सिर्फ मुआवज़ा (compensation) दे,
या
सीधे संविदा का पालन करवाए (specific performance)।
🔹 "...कि वह संविदाओं के विनिर्दिष्ट पालन के लिए अनुतोष जारी करें..."
👉 मतलब:
अदालत यह आदेश दे सकती है कि जिसने वादा (संविदा) किया है, वह उसे पूरा करे — यानी काम करके दे।
🔹 "...लेकिन यह देखा गया कि ज़्यादातर मामलों में न्यायालयों ने प्रतिकार (compensation) ही प्रदान किया..."
👉 मतलब:
हालाँकि कानून ने यह अनुमति दी थी कि अदालत चाहें तो किसी को वादा पूरा करने का आदेश दे, लेकिन व्यवहार में अदालतों ने अधिकतर मामलों में बस पैसे की भरपाई (मुआवज़ा) दी।
🔹 "...और विनिर्दिष्ट पालन अपवाद स्वरूप दिया गया।"
👉 मतलब:
संविदा को पूरा करवाने का आदेश अदालत ने बहुत ही कम और विशेष मामलों में दिया — यानी ऐसा निर्णय अपवाद (exception) बनकर रह गया।
✅ अब पूरे वाक्य का सरल अर्थ:
> सन 1963 में ‘विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम’ बनाया गया, जिससे अदालत को यह अधिकार मिला कि वह किसी अनुबंध के भंग होने पर यह आदेश दे सके कि अनुबंध को वास्तव में पूरा किया जाए।
लेकिन व्यवहार में यह देखा गया कि अदालतों ने ज़्यादातर मामलों में केवल मुआवज़ा (compensation) ही दिया,
और किसी को ज़बरदस्ती संविदा निभाने का आदेश देना बहुत ही कम मामलों में किया गया, यानी यह एक अपवाद (exception) बन गया।
🧾 निष्कर्ष
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम केवल एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि भारत की न्याय प्रणाली में निष्पक्षता और प्रभावशीलता का एक सशक्त माध्यम है।
इसका विकास, 1877 के प्रारूप से लेकर 1963 और फिर 2018 तक, यह दर्शाता है कि कैसे भारतीय विधि समय के साथ समाज और व्यापार की ज़रूरतों के अनुसार खुद को ढालती रही है।
आज जब संविदाएं और संपत्ति विवाद तेजी से बढ़ रहे हैं, तब इस अधिनियम की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है।
यह हमें यह भी सिखाता है कि केवल अधिकार होना पर्याप्त नहीं, बल्कि उन्हें लागू करवाने की प्रक्रिया भी उतनी ही ज़रूरी है।
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