भारतीय संविधान एक संघीय ढांचे पर आधारित है, जिसमें शक्तियों का वितरण दो दृष्टिकोणों से किया गया है—
1. विस्तार के दृष्टिकोण से (Territorial Extent)
1. संसद की शक्ति – संसद सम्पूर्ण भारत या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है।
2. राज्य विधानमण्डल की शक्ति – राज्य विधानमण्डल अपने सम्पूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकता है।
3. सीमा के बाहर भी प्रभाव –
संसद द्वारा बनाई गई विधि केवल इस कारण अमान्य नहीं होगी कि उसका प्रभाव भारत के राज्य क्षेत्र से बाहर भी पड़ता है।
इसी प्रकार, राज्य विधानमण्डल द्वारा बनाई गई विधि राज्य के बाहर भी लागू हो सकती है, बशर्ते विषय और राज्य के बीच पर्याप्त संबंध हो।
4. व्यावहारिक कठिनाई – यद्यपि सिद्धांत रूप से यह संभव है, लेकिन व्यवहार में किसी कानून का राज्य या देश की सीमा के बाहर लागू होना आसान नहीं होता।
महत्वपूर्ण केस: State of Bombay v. RMDC, 1957 SC — इसमें स्पष्ट किया गया कि यदि किसी विषय का राज्य से पर्याप्त संबंध है तो राज्य की विधि का बाहरी प्रभाव भी मान्य होगा।
2. विषय-वस्तु के दृष्टिकोण से (Subject Matter)
भारतीय संविधान ने विधायी शक्तियों के बंटवारे के लिए सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ निर्धारित की हैं—
(i) संघ सूची (Union List)
विषय – राष्ट्रीय महत्व के कार्य जैसे रक्षा, विदेश नीति, परमाणु ऊर्जा, रेल, डाक, तार, टेलीफोन आदि।
संख्या – कुल 97 विषय।
अधिकार – इन विषयों पर कानून बनाने का विशेषाधिकार केवल संसद को है।
(ii) राज्य सूची (State List)
विषय – राज्य महत्व के कार्य जैसे पुलिस, जेल, न्याय व्यवस्था, कृषि, शिक्षा, भूमि आदि।
संख्या – कुल 66 विषय।
अधिकार – इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य विधानमण्डल को है।
(iii) समवर्ती सूची (Concurrent List)
विषय – ऐसे विषय जिन पर संसद और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं, जैसे—दण्ड विधि, विवाह-विच्छेद, संविदाएं, दिवालियापन, श्रम कल्याण आदि।
संख्या – कुल 47 विषय।
असंगतता की स्थिति – यदि संसद और राज्य दोनों ने कानून बनाया है और दोनों में टकराव है, तो संसद का कानून प्रभावी होगा।
अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers)
ऐसे विषय जो किसी भी सूची में शामिल नहीं हैं, उन पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है।
यह अधिकार अनुच्छेद 248 के अंतर्गत प्रदान किया गया है।
समवर्ती सूची में असंगतता का प्रभाव – अनुच्छेद 254
1. सामान्य नियम – अनुच्छेद 254(1)
यदि राज्य का कानून संसद के कानून से टकराता है, तो संसद का कानून प्रभावी होगा।
राज्य का कानून केवल असंगत भाग में शून्य हो जाएगा।
2. अपवाद – अनुच्छेद 254(2)
यदि राज्य का कानून समवर्ती सूची के किसी विषय पर संसद के पूर्ववर्ती कानून से असंगत है, लेकिन उसे राष्ट्रपति की अनुमति मिली है, तो वह राज्य में प्रभावी रहेगा।
3. परंतु (Proviso) –
राष्ट्रपति की अनुमति के बाद भी संसद उस विषय पर नया कानून बनाकर राज्य के कानून को निष्प्रभावी कर सकती है।
उदाहरण: Deep Chand v. State of U.P., 1950 SC — यूपी परिवहन सेवा (विकास) अधिनियम, 1955 को संसद के संशोधित मोटर व्हीकल्स अधिनियम, 1956 के कारण असंवैधानिक घोषित किया गया।
तत्व एवं सार का सिद्धांत (Pith and Substance Doctrine)
अर्थ – यदि किसी कानून का मुख्य उद्देश्य (सार) बनाने वाले विधानमण्डल की शक्ति में आता है, तो वह वैध है, भले ही उसमें आंशिक रूप से दूसरे विधानमण्डल के विषय का अतिक्रमण हो।
महत्वपूर्ण केस:
1. Prafulla Kumar v. Bank of Khulna, 1947 PC – सिद्धांत की व्याख्या।
2. State of Bombay v. F.N. Balsara, 1951 SC – बॉम्बे मद्य निषेध अधिनियम को वैध ठहराया गया क्योंकि उसका मुख्य उद्देश्य ‘आबकारी’ (राज्य सूची) से संबंधित था।
3. Ishwari Sugar Mills v. State of U.P., 1980 SC – यूपी शुगर अधिग्रहण अधिनियम वैध घोषित।
4. K.B. Deshpande v. Land Tribunal, 1993 SCC – सिद्धांत की पुनः पुष्टि।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण संतुलित ढंग से किया गया है।
संघ सूची के विषयों पर संसद का पूर्ण नियंत्रण है।
राज्य सूची के विषयों पर राज्य विधानमण्डल की प्राथमिकता है।
समवर्ती सूची में दोनों कानून बना सकते हैं, लेकिन टकराव की स्थिति में संसद का कानून प्रभावी होता है।
"तत्व एवं सार" का सिद्धांत न्यायपालिका को यह निर्धारित करने में मदद करता है कि कोई कानून वास्तव में किस विषय से संबंधित है।
0 टिप्पणियाँ